क्या मुझे साझा करोगे
क्या मुझे साझा करोगे
क्या मैं अपने राज़ तुम्हारे साथ साझा कर सकती हूँ?
तुम्हारे करीब आकर हौले से गुनगुनाते कानों में..
शब्द इजाज़त नहीं दे रहे
खयाल भी कहने के मूड़ में नहीं
पर दिल चाहता है तुम्हारे सामने खुल्ली किताब सी बन जाऊँ..
मैं स्त्री से उपर उठकर भी बहुत कुछ हूँ,
तुम जो देख नहीं पाते, पढ़ नहीं पाते मेरे भीतर
उन सारी संज्ञाओं का अर्थ हूँ...
मैं अहसास हूँ, मैं सपना हूँ, मैं धैर्य हूँ
ये सब मेरे भीतर शिद्दत से जल रहा है
गर्म लावा सी मेरी इच्छाओं को महसूस करो,
मुझे देखनी है अपनी गरिमा की उस ज्योत को
तुम्हारी आँखों के भीतर झिलमिलाती डार्क पुतलियों के पीछे..
फैला हुआ मेरा पागलपन, बेशर्मी और मेरी विस्फोटक लालसाएं,
मेरी खुद्दारी और समझदारी की नदियों को मर्दाना
अहं से परे रहकर विशाल समुन्दर बनकर थाम सकोगे..
क्या तुम मुझे खुद के साथ साझा करने के लिए समर्थ हो
मेरी तपिश को महसूस करने के लिए तैयार हो
मेरे स्पंदन और मेरी गरिमा के कतरों को समेट पाओगे
क्या तुम बाँहें फैलाकर आगोश में ले सकते हो मेरे विराट वजूद को
या बंद कर दूँ मेरे राज़ को समेटे पड़ी किताब को।