क्या खोया क्या पाया
क्या खोया क्या पाया
पलट रहा था पन्ने, बैठ के जिंदगी के
ढूंढ रहा था पलों को,उजागर कर के
लिख रहा था हिसाब,पन्ने टटोल के
क्या खोया क्या पाया, यहीं सब जान के।।
किया तो जिंदगी में, बहुत कुछ था
पन्नों से हिसाब, मेल नहीं खा रहा था
शून्य बटा सन्नाटा, छाया हुआ था
क्या खोया क्या पाया, पता नहीं था।।
बचपन के पन्ने देखा पलट के
उसमें रहा कुछ समय सिमट के
लड़कपन के सपने थे सुहावन के
क्या खोया क्या पाया, सपने थे खेलावन के।।
जवानी के पन्ने, बड़े तेज़ी से निकले
रूक नहीं रहे थे, हाथों से फिसले
क्रोध, अहंकार, ईर्षा से ही मैले
क्या खोया क्या पाया, वो दिन तो ऐसे ही निकले।।
अधेड़ अवस्था में पहुंच चुका हूं
गिनतियों से ख़ुद को बचा रहा हूं
पाने का पलड़ा जबरदस्ती, झुका रहा हूं
क्या खोया क्या पाया, ख़ुद को बता रहा हूं।।
उम्र गुजर जायेगी , इस कशमकश में
क्या खोया क्या पाया, इसकी दराज में
सोचा आज मैं जी लूं, छोड़ के उस फिराक में
क्या खोया क्या पाया, उम्र अभी बहुत हैं
उसके हिसाब में।।