कविताशीर्षक-----आँगन।
कविताशीर्षक-----आँगन।
मै दूर गगन से झाकुं अपना आँगन
जहाँ मै खेला साथ दोस्तो संग, आज भी उसकी याद दिल मे बसा, मै घुमू सात समंदर पार।
कच्ची सी उसकी जमीन पर मै नँगे पाव चलता था दिन भर।
कभी याद आ जाती खाने की तो भाग कर आँगन के पेड़ पर चढ़ अमरुद की टहनी खिंच,पेट की अग्नि को हो शांत करता।
गर्मी के वो दिन थे होते जब हम स्कुल से घर को दौड़ते।
राह मे मिल जाता कोई कुल्फी वाला मिलकर पैसे इकठे करके हम थे सब दोस्तों संग मिलकर मस्ती करते।
वो बादलो का घिर-घिर के आना और हमारा बारिश के बीच मटमैले कपड़े करके निचुड़ते आना,कही माँ को आहट ना पहुँच जाये हमारे आने की दोस्तो सँ
ग आँगन की पिछली दिवार से अंदर आना और छोटी बहन का चुपके से माँ को शिकायत लगाना और माँ का हमारे पीठ पर बेंत बजाना।
छोटी-छोटी शरारते करते न जाने कब जवानी की दहलीज पर पहुँच गये पता न लगा। अब तो पक्के मकानो मे दिन कटता और रात कब कटती आँखो मे पता तब लगता जब आंख सुबह खुलती। रह गयी है बही सब यादे हसीन थी जो काटी नन्हे-नन्हे पॉव के सहारे अपने छुटकू से आँगन मे।
चलो फिर चलते है एक बार उन्ही गलियो मे जहा काटी कई दुपहरी,खाये इकठे हो खूब अमरुद उसी पेड़ की छाल पर लगे झूले पर झूलते है। बूढ़े हो गये तो क्या अपनी आने बाली पीढ़ी को अपने आँगन का छोटा सा बसेरा उपहार मे देते है।