कविताफुर्सत की थीं घड़ि
कविताफुर्सत की थीं घड़ि
फुर्सत की थीं घड़ियां
साथी थी चांदनी रात
खामोशी का था आलम
चांद तारों से हुई बात
दिन के उजाले में गायब होकर
कहीं ढल गई रोशन रात
सिर उठा कर जो चले ता उम्र
अब यह है अपना हाल
कमर झुका कर चल रहे
धीरे -धीरे लाठी के साथ
वक्त का तकाजा है
मन में नहीं मलाल
खुशी और गम के साये
जीवन में जब भी आये
साथी उन्हें बनाया
सीने से यूं लगाया
देकर गये सबक जो
अब तक न भूल पाये
हंस कर गुजारे जो पल
यारों की महफिलों में
दिल में हैं यूं समाये
रह -रह कर याद आयें
दिल में है यह तमन्ना
फुर्सत की चंद घड़ियां
यादों के संग गुजारे।
