कविता
कविता
मैं हर वक्त सोचती हूं
एक ऎसी कविता लिखू
जिसमे प्रकृति की छटा दिखलाई दे
कलरव करते पंछियों का कलरव हो
इंसान स्वतंत्र होकर जी रहा हो
उसका मुस्कुराता चेहरा हो
हर पल वो उत्साहित हो
पर मुझे कुछ नजर आता नहीं
मैं एक ऐसी कविता लिखू
जिसमे धर्म - जाति की बातें ना हो
घृणा, बैर, रंजिश की बातें ना हो
धधकती आगों के बीच इंसान ना हो
बेजान सी आंखें क्या देखे समझ नहीं अब
रोशनी भी अब रोशनी नहीं
हर घर पर मुझे इंसान का कंकाल नजर आता है
खून बहते नजर आते है
कैसी आजादी समझ अब आता नहीं
क्या लिखूं अब समझ आता नहीं