ना कोई कहीं
ना कोई कहीं
ना कोई आस ना कोई पास ना कोई खास
ना तुम ना कोई
दूर दूर कोई नहीं
बसंत भी बहार बन बिखर गई
ठिठुरती रातें कम्बल में यूं ही बीत गई
ना, कोई आस ना पास ना कोई खास
दूर बहुत शांत धुंध में नीर भरी आंखें
कुछ ढूंढ़ती खुद को खुद से पूछती
ना तुम ना कोई
मन उदास सा कोई देख नहीं पाता इसे
मन चंचल कोई पकड़ नहीं पाता
तुम देखते पर रश्मि की तेज सब शांत
सरकती जिंदगी कब कहां किस जगह
खामोश हो जाए
लरजते होंठ जब शांत तब कोई स्पर्श नहीं
ना कोई आस ना कोई पास ना कोई खास
पलाश आ रहे टेसू का रंग भी क्या निखरता
दूर से ही देखती
उम्मीद नहीं कोई मैं किसी के पास नहीं
दूर दूर तक कोई नहीं
ना कोई आस ना कोई पास ना कोई खास।