वैधव्य
वैधव्य
हिम्मत जुटा पाई हूं आज इस पर
कुछ लिख जाऊं इस पर
बड़ा कठिन है विषय
हर कोई है संशय
हिम्मत जुटा पाई हूं आज इस पर
कुछ लिख जाऊं
पूर्ण रूप से वो मर जाती है उस दिन
खत्म हो जाती है वो आशाएं
नए नए शब्दों से उसे पुकारा जाता
जब सुन लो खुद
नाम जो दिया तुमने
सुन ना सकूँ कभी
विधवा हुई तो किसका है दोष
स्त्री का पूर्व जन्म का फुटे भाग्य का
जो तुम उलहाना देते हो
इतना डर लगता है तुमने है डराया
हम किसी के दुख का कारण ना बन जाए
श्रृंगार कोसो दूर
पर कर लिया तो अपराध
हिम्मत जुटा पाई हूं आज इस पर
करीबी जब ये कहते
शादी का निपट जाए ये रस्म
जल्दी ना करना आने की
कुछ करना तो है नहीं
पर खाना खाकर जाना
समाज के नियम मै पूछना चाहती हूं
कब बने ये किसने बनाए
उत्तर नहीं
पर कहेंगे जरूर बकवास ना करो
जब सब छीन जाता है
तब उसकी इच्छा होती है
दुनिया से अलग ना दिखे
इसलिए रंगों की जरूरत पड़ती है
मेरी है दुनिया मै जैसे जिऊ
हर इंसान को जीने का हक है
सधवा हो या विधवा
नारी नारी ही है
उत्थान ही करेगी
गर्त में ना गिराव
हिम्मत जुटा पाई ये कहने को
दिन पर दिन ही है
और कुछ नहीं
लकड़ियां तुझको अपने आगोश में ले लेगी
और कुछ नहीं।
शम शान तो सबको जाना है,
एक पल उसको शान तो दे दो
हिम्मत अब और नहीं नीर
लेखनी को दूं विराम,
आंखें धुंधली सी हो गई है
अब तो रश्मियां भी भीगने लगी है।