आईने की कहानी
आईने की कहानी
अपनी मंजिल की तरफ ....
चले जब हम रास्ते से ...
अनजाने मे चोट खा गये ....
एक टुटे आईने से ...
आईने की चोट से ..
घायल हो गये हम ...
तभी जरा ..
महसूस भी करने लगे .....
उस आईने का गम !
हमने पूछा आईने से ???
कि किसने ये हालत तेरी ???
उसने कहा !!
मैं शीशा था....
बस यही थी किस्मत मेरी !!
सुनाता चला गया आईना....
फिर अपनी कहानी ...
सिसकियाँ थी होठों पर....
आँखो मे था उसके पानी ..
खामोश पडा़ रहता था ..
वो आयना ...
न था उसका कोई ...
न था वो किसी का ..
तभी अचानक !!
एक दिन न ..
जाने क्या हुआ ...
एक परछाई ने आईने में ..
अपने अक्ष को छुआ ...
वो परछाई मूरत बन ...
आयी आईने के पास ..
आईने ने दिलाया उसे ..
खुबसूरती का नया अहसास ..
सामने आती वो मूरत ..
तो आईने को लगने लगता ..
कि वो भी किसी को ..
अपनी पहचान है दे सकता ..
आईने से दे दिया ..
उस मूरत को..
पूर्ण अधिकार ..
वो मूरत परछाई बन चली गई ..
फिर एक दिन ..
आईने को पत्थर मार ...
तोड़ कर फेक गयी वो मूरत ...
आईने को सड़क पर ..
अफसोस तक न जताया उसने ..
आईने की तड़प पर ..
हमने पूछा आईने से ??????
कि टूटने के बाद भी !!
क्या बाकी रह गई थी ..
तुम्हारी कोई उम्मीद ???
उसने कहा ...
मेरे जख्मों पर ..
एक आँसू बहा देती वो ..
तो शायद इस कदर न टूटती ..
मेरी उम्मीदों की तस्वीर ..
आईने की कहानी से सहमकर ..
हमने खुद को...
अपनी बाहों में भर लिया ..
होंठ से खामोश मगर ...
आँखो से कोई दर्द रो दिया !!!!!