यथार्थ
यथार्थ
करो नित देश हित छिपी सियासी बेड़िया देखो
देखना ही है तुम्हे गर फटी किसानों की एड़िया देखो
जो बदलाव है आया ये चुनावी दौर का है संभलकर
छिपे है कई भेष मे शेरो के वो भेड़िया देखो
बना ताज तुमको सिरों का अपनी रोटियाँ सेंक लेंगे वो
बनकर तुम्हारा हमदर्द वो हर भाव में भी रेंक लेंगे वो
चुनावी दौर है सँभलकर तुम तीलियाँ हो माँचिसों की
लगेगी आग बेशक तुम्हीं से पर जलाकर फेक देंगे वो
काबिलियत मत तलाशो इंशान पे औदे बिक रहे हैं
जिसकी जितनी पहचान उतनी ऊँचाई पर टिक रहे हैं
और वो कहाँ दौर रहा अब पहले सा जमाने का
जो मिलते थे पुरूस्कार हुनर पे अब पैसो पे बिक रहे हैं
देख रही है बिलखती माता ऊपर छूठा है कह शुदा कौन है
फटा ना कलेजा अंबर
का पिता अचेत है कह जुदा कौन है
मैं तो कहता सच मानों गर तो जहर बाटलो ए दुनिया वालो
क्यूँ करतें हो मानवता की बाते नही रही कह खुदा कौन है
जब वो बेटी तड़प रही थी बोलो मौन कहाँ थे तुम
वो जंग मौत से हार गई तोड़ो मौन कहाँ थे तुम
उस पीड़ा का अनुभव कर लो वो भी किसी की बेटी थी
सून हुई कोख मैया की मृत्यू सैया पर लेटी थी
जो जो मौन रहे कुरू सभा में सभी शोक के मारे हैं
तुमनें उनका साथ दिया जो उस बेटी के हत्यारे हैं
उन हत्यारों को बचानें को बनी हुई थी जो टोली
मैं तो कहता सब अपराधी हैं मारों सब को
चौराहे पर गोली।