विजयी भव
विजयी भव
होली आई तो मुझे याद आया,
तुम रंग अबीर लगवाने में,
हमेशा आना कानी करते रहे,
मैं मायूस हो जाती,
तुम विजयी भाव से मुस्कराते रहे।
तुम न रहे, दो वर्ष बीत गये,
घर में सन्नाटा सा छाया रहा,
इस वर्ष बच्चों की खुशी के लिये,
थोड़ा रंग ,अबीर मँगवा ही लिया मैंने।
मन में बच्चों सी जिद उभर आई,
तुम्हारी तस्वीर उतारकर,
गोद में रख कर मुस्कुराई मैं,
खूब गुलाल मलूँगी,
मना ना कर पाओगे तुम,
अब विजयी भाव मेरा होगा ,
अबीर लगाते लगाते,
उंगलियाँ दुखने लगी ,
मुझे पता ही ना चला,
आँख से झरते आँसुओं से,
तस्वीर धुल पुछ गयी,
और तस्वीर के कोनों से,
बहता अबीर मेरी ही साड़ी,
पलटवार करता हुआ,
रंगीली कर रहा था,
जिद ना जाने कहाँ गुम होगी,
मुस्कुराहाट ओठों से तिरोहित हो गयी,
मैं अपने वृद्धावस्था में लौट आई,
तस्वीर आँचल से पोंछा,
यथा स्थान रखकर,
मन को समझाया,
जब कोई प्रतिकार ही ना करे,
तब उससे प्रतिद्वन्दिता कैसी,
तुम्हें तुम्हारी माता का,
मिला था आर्शिवाद,
'विजयी भव' जो अटल है,
देखा मैंने तस्वीर की ओर,
तुम्हारी आँखें चमक रही थी,
तुम मुस्कुरा रहे थे विजयी भाव से।