क्या खोया क्या पाया
क्या खोया क्या पाया
अगर ज़िन्दगी में हिसाब लगाने बैठें की क्या खोया और क्या पाया
तो शायद शब्द कम पड़ जाए पर शिकायतें कम नहीं होंगी...
शिकायतें की इतना कुछ क्यों खोना पड़ा और उसके बदले में इतना कम क्यों मिला....
ज़िंदगी कम पड़ जाती है पर शिकायतें की इतना क्यों खोया वो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती,
भले ही एक पल को क्या पाया उसे हम भूला दें...
पर ये शिकायतों का सिलसिला ज़िंदगी में खत्म ही नहीं होता...
और हो भी क्यों, क्यों न करे शिकायतें, क्यों न चाहे की सब कुछ अच्छा हो जाये,
अरे ज़िंदगी छोटी है किसी चीज़ की चाहत रखना गुनाह तो नहीं है
ना और चाहना की वो मिल जाए यह भी तो गलत नहीं है ना...
काश की ज़िंदगी में क्या खोया के दुख से ज़्यादा क्या पाया की खुशी होती....
पर क्या करें ये ज़िंदगी है और इस ज़िन्दगी में हमारे हिसाब से कोई काम होता कहाँ है
यहाँ तो बस वही होता है... जो होने वाला होता है...
लोग कहते है कि ज़िन्दगी छोटी है, जो चला गया उसे जाने दो,
जो है उसे देखो, आगे का सोचो, सब ठीक हो जाएगा...
पर एक बात समझ में ही नहीं आती है कि जो चाहिए था वो मिला नहीं
तो आगे सब ठीक कैसे हो जाएगा...
काश की ज़िंदगी एक कविता होती जिसके रचनाकार हम खुद होते...
तब शायद ये जिंदगी खूबसूरत होती और तब शायद
हमें ये हिसाब लगाना नहीं पड़ता कि हमने क्या खोया और क्या पाया।