अँधेरा
अँधेरा
इस ज़िन्दगी में जितने उजाले नहीं देखे हैं उससे ज़्यादा तो अँधेरे देख लिए है,
और ये अँधेरा मानो छटने का नाम ही नहीं लेता है बस रात गहराता ही जा रहा है
और ज़िन्दगी से उजाले ने मानो मुँह ही मोड़ लिया है ।
बची-खुची उम्मीद बाकी है इस ज़िन्दगी से बस वो भी मानो
हर बदलते दिन के साथ खत्म होती जा रही है।
काश यह सब देखना ही नहीं पड़ता पर मानो किसी ने
काली स्याही से इस ज़िन्दगी में बस तकलीफ़ें ही लिख दी हैं।
खुशियों का तो अता-पता ही नहीं है ऐसा लगता है मानो मुँह ही मोड़ लिया हो।
अब क्या लिखें कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है,
अब तो न कुछ लिखने को बचा है ना कुछ बोलने को।