कविता: लौटा दो वो सारे दिन
कविता: लौटा दो वो सारे दिन
लौटा दो वो गुजरा हुआ पल जो इसी जन्म में क्या
किसी भी जन्म में वापस नहीं आएगा।
वह नटखट यादगार बचपन लौटा दो।
वो कागज़ की कश्ती, छुपन छुपाई
झूला झूलना हो सके तो लौटा दो।
वो रिमझिम बारिश का मौसम,पापा का प्यार,
मां का दुलार लौटा सके तो लौटा दो।
भाई की कलाई पे राखी,
उसके बदले दिया गया वादा लौटा दो।
वह दिन जिस दिन मेरे पापा मेरे
विदाई पर फूट-फूटकर रोए थे।
ससुराल नहीं जाऊंगी रट लगाए बैठी थी।
थैला लेकर दीदी के पीछे पाठशाला भागती
थी।लौटा दो वह आंगन जहां मां मेरे पीछे
पीछे खाना देने के लिए भागती थी।
लौटा दो पापा के गोदी जहां में सर रखकर
इत्मीनान से सोती थी।
लौटा दो मम्मी की आंचल जहांअक्सर छुपतीथी।
लौटा दो रविवार का दोपहर जब दादी कहानीसुनाती थी।
लौटा दो दादा जी का छड़ी के मार
अक्षर अभ्यास करते समय पडती थी।
शाम की गोधूली जब बछड़े के पीछे भागती थी।
बचपन का क्या-क्या लौटाओगे उम्र ढलने के बाद।
सिर्फ यह चाहती हूं हो सके तो लौटा दो
मेरा बचपन का उम्र।वो घड़ी, वो सुनहरे पल।
