कवि की कल्पना
कवि की कल्पना
कभी कभी सोचता हूं एक कवि
कितना कुछ कह जाता है या लिख जाता है.....
ना जाने कैसे - कैसे अल्फाज़ पिरोता है
क्या ये.......
खुद के ही एहसास लिखता है...?
इसके लफ्जों में क्यूं सबको अपना
ही अक्स दिखता है
क्या सच में ....कवि दिल की ही बाते सुनता है
सच कहूं......
ये तो बस मन के भावो को बुनता है
जो भी लिखता है, दिल से लिखता है !
कभी दर्द तो कभी मोहब्बत पे लिखता है
कभी विरह तो कभी वेदना रचता है
कैसा शिल्पकार है ------ अपने ही अश्कों
की स्याही से जानें क्या - क्या लिखता है
फिर सोचा कि क्यों ? ...... क्यूं ये ऐसा करता है,
क्या लिया इसने कोई ठेका है
नही......नही यह तभी लिखता है
जब मन मयूर होता है या फिर अंधेरों में घिरा होता है
दिलों को लगता है ये उनके ही जज़्बातों
को लिखता है.....
कवि सच में पागल लगता है
हर एहसास को अपने ही अंदाज में लिखता है
"ललित" कवि तो हर पल लिखता है...
कवि तो बस अंतर्मन भावो को लिखता है !
