हां... मैं अल्फाज़ चुराता हूं
हां... मैं अल्फाज़ चुराता हूं
हां मैं अल्फाज़ चुराता हूं
तभी तो इस दिल के जज़्बात लिख पाता हूं
टूट जाते है जब ख्वाब खुद के
फिर से उन्हीं ख्वाबों को सजाता हूं
हां मैं अल्फाज़ चुराता हूं
रात के अंधेरों में जब अश्क बहाता हूं
तब
अश्कों की उसी स्याही से
पन्नों पर लफ़्ज़ों को सजाता हूं
सच है कि मैं अल्फाज़ चुराता हूं
इंसा की बस्ती में इंसा को कहां
पहचान पाता हूं.....और
नकाबों के इस शहर में
किसी की असलियत कहां जान पाता हूं
चोट खाता हूं पर पत्थरों को तराश नहीं पाता
ना जाने फिर भी क्यूं सबके
दिलों को छू जाता हूं
हां मैं अल्फाज़ चुराता हूं
तभी तो इस दिल के जज़्बात लिख पाता हूं