कुदरत के तेवर
कुदरत के तेवर
कुदरत के तेवर देख चूर हो गया है
आदमी ही आदमी से दूर हो गया है
जो कहता था स्वयं को अब तक खुदा
बेबस, लाचार और मजबूर हो गया है
बेखौफ घूमते हैं जानवर सड़कों पर
इन्सान कैद घर में भरपूर हो गया है
बडे़ शौक से रूख किया था शहरों में
गांव के लिए वापस जरूर हो गया है
साथ देगा हर घडी़ यकीन था जिन पर
वो हर शख्स अब मगरूर हो गया है।
