कुछ कर गुजरने का फितूर
कुछ कर गुजरने का फितूर
कुछ कर गुजरने की फितूर
ले चला मुझे, घर से मीलों दूर
अपने छूटे, सपने टूटे,
ख्वाब हुए सारे चूर- चूर
कैसा था ये फितूर।
अब तो थकना मना है,
रुकना मना है
शायद खुदा को था ये मंजूर
इस सफर में चलना है
अकेले होकर अपनो से दूर।
कुछ कर गुजरने का फितूर
ले चला मुझे, घर से मीलों दूर
अब तो कभी कभी
भूखे ही सो जाता हूं।
घर की बहुत याद सताती है,
जब सजी- सजाई थाली तक
कर देता है खुद से दूर।
कैसा है ये फितूर।
सिमट सी गई ये सांसें
इन पराए शहरों में
हर पल याद आती है
वो पापा के डांटे,
मां की वो बातें
जिसमें प्यार था भरपूर
कहां ले आया ये फितूर।