कुछ खोया खोया सा है.....
कुछ खोया खोया सा है.....
सपनों के करीब
अपनो से दूर
चोखट पार किए, और निकल परे
कुछ उम्मीदें कुछ होसलें साथ लिए
मगर अब लगता है कुछ खोया खोया सा है....
ऊंची इमारत में एक कमरा
शहर की रोशनी
खुली हवाएं
छप्पन भोग की थाली
तो कभी मसालेदार चाय की छोटी सी प्याली
सब मिलती है यहां ,
मिलते है कई लोग
आज वो तो कल कोई और
होती है फिर पहचान सभी से
रहते है सब साथ प्यार से
मगर लगता है कुछ खोया खोया सा है...
मानो खुशी तो है
मगर खुल कर हसे ज़माना हो गया हो
फिर सोचती हूं , जहां खुद को सपनों मे खुश देखती थी
वहीं आज हकीकत मे मुरझाई सी रहती हूं
हां देखो ,ये बिलकुल सच है
कहने को सब कुछ है यहां
मगर बहुत कुछ खोया खोया सा लगता है ।
ऊंची इमारत में बैठकर
याद आती है घर की आंगन
मानो हर रोज एक आस रहती है
घर जाने की एक उम्मीद पास रहती है
फिर लगता है, बहुत कुछ खोया खोया सा है ।
खो जाती हूं, इस शहर की रोशनी मे
फिर अपना कह कर कोई बुलाता नही
मानो भीड़ तो है
मगर उस भीड़ मे कोई तुम्हारा नहीं
फिर लगता है ,बहुत कुछ खोया खोया सा है ।
फिर लगता है, बहुत कुछ खोया खोया सा है ।
