कुछ आधे से हैं किस्से
कुछ आधे से हैं किस्से


आधी-आधी होकर कोई शय
मुकम्मल हुई ही कब है
अगर कागज़ है
तो कलम भी जरुरी है
और उसमें बहने वाली रोशनाई,
जो लिख देती है
जरुरी-गैरजरुरी बातें
आधी तुम्हारी
और आधी मेरी
तुम्हारे हिस्से की धूप लिखती है कभी
तो छांव वाला मेरा हिस्सा भी,
जो मिलता है नसीब से वो सब भी
और मेरे रकीब की बातें,
खुला सा घर का दरवाज़ा
इसमें सिमटी अपनी दुनिया,
तुम्हारे प्यार में साज को तरसता मेरा मन
उम्मीद की चौखट पर
बना हुआ नीलगगन
जो बरसता है आधा मगर
पूरा करता है हमें !