क्षमादान
क्षमादान
फिज़ा में छाई ये उदासी,
बयां करती है फितरत इंसान की,
कई बार दिए थे मौके कुदरत ने संभलने को,
संभाल सकता था इंसान ख़ुद की तबाही,
आज सांसों के लिए भी देनी पड़ रही है दुहाई,
हर दिन कोई अपना दिखाकर जा रहा है रुसवाई,
आ गया अब समझ में शायद हमारे,
बिन प्रकृति के नहीं है जीवन के नज़ारे,
अंधी आधुनिकता की दौड़, दौड़ते हुए गर्त में जा रहें हैं हम,
प्रकृति की गोद को उजाड़,
बहुत इतराते- इठलाते थे हम,
आज दो गज जमीन के लिए भी,
तरस रहा है हमारा तन,
देख कर मंजर यह ख़ुदा भी रो उठा होगा,
न्याय के लिए पर आंख बंद करनी पड़ गई होगी उसे,
समझ आ गई है शायद हम को गलती अपनी,
क्षमा दान दें हमको प्रकृति,
स्वामी नहीं साथी बनकर रहेंगे तेरे ,
बंद कर यह कहर अपने,
फिर से खुशियों की बरसात हो,
फिर से फिज़ाओं में सकारात्मकता का प्रभाव हो,
फिर से धरा में सुख समृद्धि का वास हो,
ऐ खुदा गलतियों को माफ़ कर हमारी,
सुन लें अरदास हमारी।