कश्मकश
कश्मकश
मैं कश्मकश में था इज़हार करने को कि किस तरहा करूं सो आज सब छोड़ मन बना ही लिया और लिख रहा हूं...
मुझे पता है की तुम मुझे नहीं जानती हालांकि देखा भी होगा तो शायद इक्का दुक्का बार ही, मगर भीड़ की तरह।
पर मैंने देखा है तुम्हें कई दफा, सुब्ह-ओ-शाम,
उन नज़रों से, जो ढूंढती हैं भीड़ में कई बार धरती का एक शांत कोना,
हां, ठीक वैसे ही।
न जाने क्यूं सिर्फ़ शांति दिखी तुम में,
जिसे देख होने लगती थी उथल पुथल मेरे मन में।
बताता चलूं कि कहां देखा है मैंने तुम्हें
तो-
किसी मूवी थिएटर में, कि अपनी ही गली में घूमते देखा था शायद,
या स्कूल आते-जाते या फिर स्कूल में ही शायद,
हो सकता है अपने या किसी और के जन्मदिन की पार्टी मना कर सहेलियों के साथ लौट रही हों तब,
या कोचिंग आते-जाते शायद...
या रात को कभी उस तीसरी दुनिया में भी जिसे कहा जाता है मल्टीवर्स,
जो होती है हमारी दोनों आंखों के बीच जिसमें चलतीं हैं सपनों की रील्स
कुल मिला के बात है कि- मैंने देखा है तुम्हें।
और देखा ही नहीं बल्कि अब तो सोचा और लिखा भी है तुम्हें...।
मैं सोच रहा हूं कि तुम पढ़ोगी इसे तो क्या सोच पाओगी कि मैं कौन हूं?
मुझे लगता है- नहीं, क्यूंकि मैं तुम्हारी नज़र में महज़ भीड़ में चलता एक वो चेहरा था जिसपर नज़र पड़ी भी हो तुम्हारी, मगर तुम्हारा वो नज़रिया न हो जो कि शायद मेरा है।
तुम पूछो और मैं बता दूं ऐसी उम्मीदें नहीं की जाती इस तथाकथित मेटावर्स जैसी दुनिया में क्यूंकि ये जो भी है असल होते हुए भी सिर्फ काली रात का इक रंगीन स्वप्न है जो न जाने कहां अंत हो।