बेनाम हूं
बेनाम हूं
कोई नाम नहीं बेनाम हूं
हकीकत से दूर
एक उलझी पैगाम हूं
तुम बारिश की पहली बूंद जैसे
में पत्तो से झड़ी बो औंश
तुम हो अलाव की चिंगारी
तो में जलती शमसान हूं
तुम बदलते मौसम सा जरूरी
में पतझड़ सा बदनाम हूं ।
तुम जेठ महीने की दोपहरी
और में ढलता शाम हूं
तुम बंद आंखों के ख्वाब जैसी
में जागता हुआ रात हूं
तुम तो ठहरे चांद खूबसूरत
में तारों की आवाम हूं
तुम तो ज्ञानी दुनिया भर के
में खुद का खयालों का गुलाम हूं
तुम चार वक्त के नमाज सी जरूरत
में साल भर का रमजान हूं।

