कोयल का विधवा औरत से संवाद
कोयल का विधवा औरत से संवाद
तू भी गमगीन, मैं भी दुखियारी,
पर मुझमें और तुझमें अंतर, अपार हैं।
मैं कैद में रहकर भी आज़ाद सी हूँ,
तू खुली हवा में रहकर भी, गुलाम हैं।
मैंने कुहु-कुहु के अलावा कुछ सिखा नहीं,
तुने भी तो हु-हां के सिवा कुछ बोला नहीं।
मैं श्याम रंग पहनकर भी सुंदर लगती रही,
श्वेत में लिपटकर तू मनहूस कहलाती रही।
मैंने खुल कर जीने की चाहत को न छोड़ा हैं,
तुने अपनी इच्छाओं का गला खुद ही मरोड़ा हैं।
मैं बेड़ी से मुक्त होते ही, गगन में फिरती रहुंगी,
तु बंधन रिक्त होकर भी कुरीतियों में फंसती रहेगी।
परंपराओं में डूबी, तू टूटी हुई चुड़ी बनी,
मैं तो रोज़ ख्यालों के बादल में उड़ी चली,
श्राद का कौआ भी पल भर बैठा,और आगे बढ़ा
तेरा जीवन क्यों फिर, बिन मौत, फांसी पर चढ़ा?
मैं जानती हूँ.....
पिंजरे में हूँ मैं, पर मेरे इसमें मेरा कसूर नहीं,
विधवा कहलाई अपशकुन, क्या ये दस्तूर सही ?
मुझे समाज के इन रिवाजों से अब भी गिला हैंं,
सती प्रथा में आज शरीर नहीं, तेरा वजूद जला हैं।