कोरोना संकट और दिहाड़ी मजदूर
कोरोना संकट और दिहाड़ी मजदूर
हाँ ! आज मैं रोया हूँ,
आँखों के अमृत नीर में खुद को धोया हूँ।
वो आँखों में छिपाए ग़म था,
पर दर्द उसका न कम था।
रोज जीने वाला आज मरने लगा,
तो रोज मरने वाला कौन सा घी पीने लगा।
बनाने मेरे लिए खाना आता है,
घर जाकर भूखे बच्चे पाता है।
रोटी को पाने बिहार से वो आया था,
दुःख उसका यह रहा राजस्थान का
न जाया था।
हाँ! आज मैं रोया हूँ,
आँखों के अमृत नीर में खुद को धोया हूँ।
सुना उसने जब खाते में पैसे आए हैं,
खोज डायरियाँ वो महाशय पास मेरे लाए हैं।
विडम्बना बड़ी ये दुःख रही,
घर उसके अब भी खड़ी भूख रही।
हाँ! आज मैं रोया हूँ,
आँखों के अमृत नीर में खुद को धोया हूँ।
बैंक की देख डायरियाँ मेरे पास खड़ा वो रोया है,
पानी में भीगी डायरियाँ तड़प कर कल सोया हैं।
न कोरोना को उसने जाना है,
दुःख बस रोटी का उसके घर न आना है।
किसकी मजाल जो दुःख इनके बांध ले,
भला कौन वीर पौरूष अपने तीर में इन्हें साध ले।
हाँ ! आज विवशता को मैने माना हैं,
दुःख बड़े सब छोटे नहीं इस बात को भी जाना हैं।
हाँ! आज मैं रोया हूँ,
आँखों के अमृत नीर में खुद को धोया हूँ। ।
