शहरी जीवन से मोह भंग
शहरी जीवन से मोह भंग
चलो चल चले हम फिर वही चले,
प्रकृति की खुशबू गांवों के आँचल में पले।
चलो चल चले हम फिर से वही चले।
क्या ! पाया इस आजादी से,
मिला बस प्रदूषण लिप्त कटोरा।
इस शहरी भीड़ में न था अपना,
कोई यहाँ था न अपना।
था बस जगह हर भ्रष्टाचार,
लूट का धुंधला दर्पण दिखा।
आओ देख दर्पण इसको हम फिर से पले,
चलो चल चले हम फिर वही चले।
प्रकृति की खुशबू गांवों के आँचल में पले,
चलो चल चले हम फिर वही चले।
गंदी बदबाती गलियों में,
झेल रहे एक कमरे में दस मानवी।
दो बच्चे दो मानवी भाषा में,
संयुक्त परिवार टूटा इस आशा में।
यहाँ मिला न कुछ ज्यादा है,
पहले जो था किसान,
आज वो शहरी मजदूर हैं।
आओ हम शहरी धुंध छोड़ फिर खुशियों में फले,
चलो चल चले हम फिर वही चले।
प्रकृति की खुशबू गांवों के आँचल में पले,
चलो चल चले हम फिर वही चले।
मेरा अनुभव तो छोटा हैं,
पर नगरो में गांवों से ज्यादा टोटा हैं।
यहाँ न कोई जानता किसी को,
जानना चाहता भी नहीं कोई किसी को।
बस लुटना सबका कर्म रह गया,
अनैतिक-द्वेष यहाँ का धर्म रह गया।
आओ हम फिर से प्रेम नैतिकता में पले,
चलो चल चले हम फिर वही चले।
प्रकृति की खुशबू गांवों के आँचल में पले,
चलो चल चले हम फिर वही चले।
