कोई गम नहीं
कोई गम नहीं
"उत्कट प्रेम की परिभाषा क्या पता क्या होती होगी"
मैं जो करती आ रही हूँ उनसे शायद प्रेम है, हाँ प्रेम ही तो है...
हर दफ़ा हर पल मैं उन पे मरती रही भीतर ही भीतर चिंगारी सी जलती रही
प्रेम तितली है दिल शहद,
हर फूल में उसका ही चेहरा तलाशती रही...
मैं उसकी आँखों पर अपनी जान न्योछावर करती रही
हंसी की तरह उनके लबों पर ठहरती रही जैसे उसकी हर खुशियों की वजह मैं ही रही...
थक कर उसके चूर होने पर नखशिख मैं क्यूँ पसीजती रही
अपने हिस्से की हर सौगात उसके नाम ही करती रही...
देखे न महसूस किए कभी उसके दिल के एहसास मैंने
फिर क्यूँ उसकी हर अनकही बातों का प्रतिभाव मैं देती रही...
सिंगार की उसकी आदत पर मैं धुआँ बनकर उठती रही,
राख भई न कोयला फिर भी मनमीत पर आफ़्रिन होती रही...
उसके हर गम को अपना कर अपने मथ्थे मढ़ती रही,
उसका ज़िंदगी से हारना मुझे मंज़ूर नहीं
अपने भीतर का हौसला उसकी रग-रग में भरती रही...
कितनी मासूम होती है चाहत
उससे जुड़ी हर कहानी का मैं किरदार बनती रही
मुझे प्रेम है उसकी हर अदाओं से तभी तो
उसकी नज़र अंदाज़गी भी सहती रही...
जब टकराई थी उस ज़ालिम की नज़रों से
मेरी नज़र उस लम्हे का सज़दा ताउम्र करती रही...
किसी ने कहा मुझसे एक दिन जिस पर तू इतनी शिद्दत से मरती है
उसकी सोच में भी तू दूर दूर तक नहीं....
हमने भी कह दिया तो क्या हुआ उसकी निगाहों में हम नहीं,
रहता तो वह मेरे भीतर ही है, उससे दिल लगाने का हमें कोई गम नहीं...