कोहरा
कोहरा
धुंध कोहरे से ढकी गाँव की सुबह
पर्वतों पर सफेद सजी रेखाएँ
ओस रूपी मोतियों से सजी धरा
डाल पात पुष्प सब ठिठुरे हुये थे।
सो रहे थे सब ठिठुर कर
मन में घोर तिमिर था समाया
नदी तालाब न दिख रहे थे
सुमार्ग भी अदृश्य हो रहे थे।
दिनकर की किरणे ज्यों पड़ी धरा पर
धीमे-धीमे धुंध की चादर हटी
पशु – पक्षी सब आनंदित हुए
रंग –बिरंगे पुष्प भी खिल गए।
कोयल का मधुर मनोरम गीत
पेड़ों को सरगम सिखाने लगा
धुंध का अंत एक दिन आता है
मन का अंधकार भी मिट जाता है।
