कमबख्त नींद
कमबख्त नींद
क्या कह रहे हो ?
नींद नहीं आती तुम्हें
रात रात भर..
शय्या भी है नरम
ना हवा है गरम
फिर भी पड़े हुए मुलायम गद्दों पर
करवटें बदलते रहते हो रात भर
गोलियां नींद की
बढ़ती जा रहीं हैं दिन पर दिन
और घटता जा रहा है असर
तो सुनो
किसी दिन यूँ ही
चल देना
घुप्प अँधेरी रात में
या अलसुबह
उषा की आहट से भी पहले
अपने घर से कुछ दूर
फैली हुई सर्पीली सी राहों पर
या सन्नाटे की गलबहियां किये हुए
किसी भी चौराहे पर
दुकानों के चबूतरे भी मिल जाएं
तो ठीक रहेगा
फुटपाथों की पथरीली चुभन भी चलेगी
किसी गुमटी के भयावह आसरे तलाशना
या किसी ठेले,रिक्शे जैसी खुरदरी सतह
इन सब ठिकानों पर मिलेगी तुम्हें नींद
बेसुध पड़ी हुई
चिथड़ों में लिपटी हुई
झाँकते होंगे उनमें से
कटे फटे मटमैले से पैर
पास ही कुछ श्वान भी मिल जाएंगे
जैसे रखवाली करते हों
उस गहरी पक्की नींद की
कितने भी ढोल बजाओगे तुम
वो टस से मस नहीं होगी
अपनी ही दुनिया में मगन
वो कठोर गर्म नींद
एक प्राणविहीन देह सी
सिमटी हुई वो नींद
पता है तुम्हें कैसे जनमती है
ऐसी सख़्त नींद
दिन भर निगलनी पड़ती हैं
गोलियां
हाड़तोड़ मेहनत की
फिर समेटती है अपने आगोश में
ये कमबख़्त नींद
कुछ खोने के डर से बेख़ौफ़
डर को गिरा देती है
फटी हुई जेब।