कली की आशा
कली की आशा
इक नन्ही कली जब फूल बनी,
छोटी-सी आशा मन में जगी...
पा जाऊँ दुलार इस जग में सबका,
एक छोटा-सा हिस्सा बन जाऊँ...
मैं भी इस उपवन का
थोड़ी-सी धूप,
थोड़ी-सी बयार
और पा जाऊँ ढेर-सा प्यार!
इक नन्ही कली जब फूल बनी,
छोटी-सी आशा मन में जगी...
न तोड़ी जाऊँ अपनी डाली से कभी,
न मसली जाऊँ,
न कुचली जाऊँ,
महकती जाऊँ, महकाती जाऊँ!!
इक नन्ही कली जब फूल बनी,
छोटी-सी आशा मन में जगी...
पर टूट गई वो आशा...
जो थी उसके मन में जगी,
वह नन्ही कली फिर तोड़ी गई,
कुचली भी गई, मसली भी गई!!
वह नन्ही कली,
वही पूछती है कली...
कब तक टूटेगी आशा मेरी,
क्या फूल बन महकने का
इस उपवन को महकाने का
मुझे हक जरा सा भी नहीं ....?