कितनी दफा
कितनी दफा
कितनी ही दफा
जब सामने आते हो तुम
मैं कहना चाहती हूँ
अब तुम कहीं मत जाना
।
आए हो तो बस
यहीं रुक जाओ
तुम्हे मेरी कसम
तुम अब कहीं न जाना।
मगर मैं चुप रह जाती हूँ
सोच कर तेरी मेरी मजबूरियां।
कितनी ही दफ़ा
खाने की थाली पर
तुम्हारा इन्तजार करती हूँ।
शायद तुम आओ
और खिला दो
एक कौर प्यार से
अपने हाथों से
पर फिर मन को मना कर
अपने ही हाथों को।
तुम्हारे हाथ समझकर
खाना खा लेती हूँ।
कितनी ही दफा
खुल जाती हैं आँखे
सोते से यकबयक
और मैं करवट बदलकर
तुमको खोजती हूँ।
शायद तुम सीने से लगाकर
थपकियाँ देकर
अपने पास सुला लोगे
लेकिन तकिये को
बाँहों में थाम कर
जब सुबह जागती हूँ,
तो रात की बहती कहानी
के निशान पाती हूँ
उस तकिये पर।
कितनी ही दफ़ा
कोई बटन टाँकते
चुभ जाती है सुई
जब उंगलिओ में
ख्याल तेरा आकर
पोंछ देता है।
बहते खून को
मुँह में ऊँगली लिए
मुस्कुरा उठती हूँ
क्योंकि जानती हूँ
तू दूर रहकर भी मेरा
ख्याल रखता है।

