तुम नदी सी शांत
तुम नदी सी शांत
तुम नदी सी शांत
सागर सा विशाल हृदय लिए
कौन सी पहचान है जो
मुत्तासिर न हो तुमसे।
नीलगगन का वो छोर
लोग जहां धरती और
आसमान के मिलने को
क्षितिज कहते हैं कहाँ दूर रहा।
हमेशा तुम्हारे आलम्बन में
लिपटे हुए यह अशोक के पेड़
यह गुलाबों की महकती-चहकती
दिलफरोश खुशबुएँ जाने कबसे,
हर श्रृंगार को अपनी छवि में लिए
सभी का ध्यान अपनी ओर
आकर्षित कर प्रकृति के
प्रेम पराकाष्ठा की लौ को
अपने में कहीं भीतर तक जलाए रखे हैं।
उन तमाम अनकहे अंधेरों के लिए
जो तुम्हारी मधुर मुस्कान को
अपने में कहीं लील गए हैं।