किताब
किताब
काग़ज़ी किताबों का ज़माना गया, सब डिजिटल हो गया,
ज्ञान तो नहीं गया, हाँ! सब वर्चुअल हो गया,
काग़ज़ की किताबों के साथ बहुत कुछ चला गया,
जिसके सहारे मिली थी नौकरी, सीखा था ककरहा,
अब न पन्नों में सूखे गुलाब हैं, ना मोर पंखियां
भूल गईं 'हरबेरियम' के लिए दबाई वो हरी पत्तियाँ,
दोस्तों के स्वेटर से नोचे ऊन के रेशे,
जिन्हें रुई पर सजा कर बनाते थे गुड़िया,
कभी तितली या पंछी के रंगीन पंख भी सजे होते थे,
कितनी यादें कितने सपने किताबों में दबे होते थे
मन्दिर में चढ़ाये फूल जो सबक़ जल्दी याद कराते,
फीस के रुपये और चोरी से उठाये पैसे,
ज़िल्द के भीतर या पन्नों में छिपा रखते थे,
किताबों की अलमारियां, सेफ़-बॉक्स से होते थे
प्रेमपत्रों का ज़माना था, किताब में उनका ठिकाना था
किताबें देते-लेते मोहब्बतों का इज़हार होता था…
काग़ज़ की महक में, पन्नों की छुअन में
प्रीतम से मिलने का एहसास होता था,
पुरानी किताबों को छू कर आज भी मन मचलता है
किताब के पन्नों में पूरा बचपन और यौवन बिखरा है.