ग़ज़ल
ग़ज़ल
जो महबूब मोहब्बत में दग़ा देते हैं
कमज़र्फ अपनी नस्लों का पता देते हैं
इश्क ए हकीकी का भी पूरा हिसाब है हाजिर
खुदा की राह में क्या देते हैं क्या लेते हैं
वह ज़माना अब नहीं रहा रुहानियत का
जिस्म फरोशी को अब वफ़ा कहते हैं
हाफ़िज़ है खुदा मेरी तक़दीर का लोगों
मुझे डर नहीं कौन बद्दुआ देते हैं
रखवालों से खतरा है कीमती सामान को
आम लोग अब तो कचरा भी उठा लेते हैं
ज़िन्दगी रही तो मुलाकात भी होगी
बेवजह तो मां बाप मिला करते हैं
होश करो ख्वाबों में जीना ठीक नहीं
लोग तो आंखों से काजल भी चुरा लेते हैं
नहीं जानते यह मुझे तलाश किसकी है
फिर भी क्यों लोग रास्ते बता देते हैं
तुम तिजोरी के लुटने पर रोते हो रौशन
लोग खंडहर की ईंटें भी चुरा लेते हैं