किताब-ए-ज़िन्दगी
किताब-ए-ज़िन्दगी
यूं तो इतने ग़म हैं
कि हिसाब नहीं |
पर अपनी हिम्मत
का भी जवाब नहीं।
उसका जीना भी
भला क्या है जीना,
जिसकी आँखों में
कोई हसीं ख़ाब नहीं।
न जाने किस
गुनाह के मुजरिम हैं ये,
इन अंधेरों के
हिस्से में आफ़ताब नहीं।
वक़्त का मारा है
भला वो क्या कहेगा,
ये न सोचो कि ग़रीब
का कोई ख़ाब नहीं।
सिखा दिया है ज़माने
की ठोकरों ने हमें,
ज़िंदगी से बढ़कर
कोई किताब नहीं।
