किस्से कुछ अधूरे से
किस्से कुछ अधूरे से
सुकून की तलाश में भटकता रहा हूं मैं दरबदर,
रखी ना थी कोई कमी मैंने अपना प्यार निभाने में।
फ़िर भी ना जानें क्यों उसने मेरी कोई ना करी कदर,
मिलता था उसको कुछ ऐसा जो ना कर पाया बयान में।
ख़्याल रखता उसकी हर एक बात का जो ना हुई कभी,
हुई हम दोनों के बीच कि ना रखी कमी कुछ करने में।
दे दिया मेरा सब कुछ पर भी ना हुआ वो मेरा ख़ुदगर्ज कभी,
अब कैसे बताता मैं कि क्या हुआ था हम दोनों के बीच में।
दर्द भी मेरा अधूरा रह गया जब लिया उसने मुझे मुंह फेर,
फ़िर भी ना रखीं कोई कमी मैंने ख़ुद को झूठे दिलासे दिलाने में।
यकीं था मुझे कि आएगी वो एक दिन मेरे पास थोड़े ही देर,
क्योंकि यही तो मेरी महोब्बत कि इल्तज़ा रही दर्द भुलाने में।

