कसूर
कसूर
कसूर आखिर मेरा ही था जो मैंने तुमको खो दिया,
ना चाहते हुएं भी उसी गलती को मैंने फ़िर से दोहराया।
मना किया था तुमने कि मत करना भूले से भी कभी,
पर मैं नाद़ान कर बैठा शक़ तुम पर जो नहीं करना था।
कैसे यकीं दिलाऊँ कि हालात ही कुछ़ ऐसे मेरे हुएं थे,
तुमको अपना बनाना था पर अब तुम्हें खो जो दिया था।
दिन-रात आतें मुझे ख़्याल बस एक अब तुम्हारे जो थे,
कौसता हूं ख़ुद़ को कि यकीं मेरा तुम पर जो डगमगाया।
मिल रही सज़ा आज़ उसी बात और काम की जो हे,
भूलाकर भी ना भूल पाऊँ ऐसे हमारा बिछ़डना जो था।