किसान बनने क्यों नही आते हो!
किसान बनने क्यों नही आते हो!
मरदूद हुआ मुअत्तल जग खोद-खोद के हारा!
वाह रे जीवन सारा तू बना रहा बेचारा!
खून-पसीना, मेहनत-पैसा,
जब सब कुछ सन देता है,
तोड़ पत्थर, धरती का सीना,
कुछ कोमल पत्तियाँ उगाता है,
उस पर प्रकृति की मार देखिए,
सब कुछ हर लेती है,
छोटी-छोटी कोमल खुशियाँ,
पीड़ा से भर देती है ,
पुराना ब्याज चुका नहीं कि दूजी का बना चारा!
वाह रे जीवन सारा तू बना रहा बेचारा!!
फिर भी इतनी बातों का,
असर किस पर होता है,
उद्योगों को इतनी सब्सिडी,
और वह उसके न्यौछावर से भी हाथ धोता है।
तिस पर प्रभु की माया देखो,
जब कुछ अच्छा होता है।
डंठल डूब जाते पानी में!
बालियाँ पानी मे सोती हैं!
तब कहता है मन मेरा,
जब सबकुछ ही डुबाते हो।
तब क्यों नहीं, एक बार भगवन,
किसान बनने आते हो?
मखमल का न बिस्तर है,
न मलमल का है कुर्ता।
कीचड़, पानी, धूप से,
बना हुआ है उसका भर्ता।
मरी हुई है चाहत जिसकी,
न बच्चों को कुछ दे पाता है!
ऐसे तो दुर्दिन उसके,
जो सबके लिए उपजाता है!
बात यहीं तक रहती तो,
यह दर्द हालाहल पी जाता!
एक निरीह अन्नदाता बनकर,
अपना कष्ट भी लील जाता!
पर! मांगें जब मासूम खिलौना,
हसिया, खुरपी, फावड़े ही दे पाता है!
फटता है कलेजा उस वक़्त,
वह कुढ़-कुढ़ रह जाता है!
तब उठते सवाल कहीं से,
कि तुम जीते वह कैसे हारा?
वाह रे जीवन सारा तू बना रहा बेचारा!!
हे ईश्वर अब तो बहुत हुआ,
अब तो यह काम करो।
लौटा दो उसकी सौगातें,
उसकी खुशियां उसके नाम करो।
और अगर कम लगती पीड़ा तो,
तो क्यों नही यह कर जाते हो?
छोड़ इन्द्रासन को भगवन,
क्यों नहीं किसान बनने आते हो?