ख्वाहिश
ख्वाहिश
ख्वाहिश आसमां की है कि
जमी को छू लूं...
उसकी मांग सितारों से भर दूँ
सारी खुशियां उसे नज़र कर दूं।
जमीं भी कब से आसमां से
एक होने को तरसती है,
तभी तो क्षितिज पर वो
उसे चूमती सी दिखती है।
पर जो दिखता है वो ही
कहाँ होता है?
इतने पास हो के भी कोई
साथ कहाँ होता है?
ख्वाहिश करने से हर
चीज़ अगर मयस्सर होती,
हरेक के पास उसकी नूर-ए-जिंदगी
मुस्कराती..
मगर ये ख्वाहिश ही है
जो जीने का मज़ा बनाये रखती है,
हर समय कुछ कर गुजरने
की कूवत को जिलाये रखती है।
कुछ ख्वाहिश पूरी हो जाएं
अच्छा है...
पर कुछ का अधूरा रह जाना
उससे भी ज्यादा अच्छा है।
आसमां को ज़मी की ख्वाहिश
करने दो,
उसको इस याद में कुछ दिन
यूं ही पिघलने दो।
दोनों की तड़प बढ़ेगी
तो फूल खिल जाएंगे,
ये जमी, आसमां मिल
कर नया जहां बसायेंगे।