ख़ुदा (महबूब)
ख़ुदा (महबूब)
जागूँ या हो गहरी आँखों में नींद
हर पल तेरी बंदिशें गूंजती है कानों में।
तेरे मेरे बीच फैला है अजीब सा सन्नाटा,
पर एक घड़ी गुज़री नहीं बिना तेरी यादों के।
गुज़रगाह में अगर मिलना हुआ,
तो देखूँगा मुड़ कर एक बार।
के दुआ पूरी होने का एहसास
मुकम्मल होगा दीदार से तेरे।
तू आयत है जिसे रोज़ पढ़ता हूँ,
रोज़ ही नग़्मा-सरा हो जाता हूँ,
तू अनदेखा क्यूँ है, सामने तो आ,
की में सो जाऊँ होके रूबरू तेरे।
ऐ ख़ुदा अता करदे थोडी सी 'नींद'
मैं भी तमाशबीन बनु बैठ कर पास तेरे।