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Anup Shah

Abstract Tragedy

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Anup Shah

Abstract Tragedy

ग़ुबार

ग़ुबार

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मैं भी फूट पड़ता हूँ कई बार,

जब कोई आस पास नहीं होता। 


गोया मेरा तूफ़ान मेरे अंदर है,

किसी पर ज़ाहिर नहीं होता। 


जैसे सबका है, वैसे तुम्हारा भी है सलीका जीने का,

सही ग़लत का मकता दुनिया में किसी का नहीं होता। 


चाहे कोई भी लाख बुरा कहे मुझे,

बहने वाला हर दरिया गंगा नहीं होता। 


मुख़्लिस एक होता है जो क़रीब होता है,

हर शख़्स जिससे राब्ता है राज़दार नहीं होता। 


छोटा सा खेल है चंद साँसों का,

इस खेल में कोई अतम नहीं होता।


फिर जो आती है 'नींद' कुछ ऐसी,

वहाँ कोई सवेरा नहीं होता।


मैं भी फूट पड़ता हूँ कई बार,

जब कोई आस पास नहीं होता।



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