वह कागज़
वह कागज़
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वह कागज़ झुर्रियों से भरा,
रास्ते पर लुढ़क रहा था।
हवाओं के संग खेल रहा था।
बहुत देर तक दौड़ता रहा
संग मेरे,
मैं रुका तो वह भी रुक गया था।
लिखा था उस पर कुछ,
आधा मिटा हुआ,
एक पुर्ज़ा उसका ग़ायब था।
बहुत दिनों से शायद,
भटक रहा था।
देख के मुझको हैरान था।
यूँ ही बहते, लुढ़कते,
भीगते सूखते मैंने भी,
आधी ज़िन्दगी का सफर,
गुज़ार लिया था।
शायद उसको मैं,
उस जैसा लगता था।
मेरा भी एक पुर्ज़ा,
ग़ायब था।
आते ही एक झोंका हवा का,
हाथ से मेरे छूट गया।
वह पुर्ज़ा मेरा न जाने
किस दिशा में जा बैठा था।
वह कागज़ झुर्रियों से भरा,
रास्ते पर लुढ़क रहा था।
हवाओं के संग खेल रहा था।
