करतब
करतब
सालों पहले की बात है,
तमाशे और सर्कस देखा करते थे।
उसमें हुआ करता था करतब एक
रस्सी पर चलने का,
डर लगता था जब ऊंचाई पर
कर्तबगार चलता था उस पर
रस्सी पर झूलता था।
वक़्त रहते समझ आया
ज़िन्दगी भी तो करतब ही है
सब रस्सी पर चलते हैं,
सारे करतब करते हैं
कोई कामयाब होता है
कोई कोशिश करता रहता है
और वक़्त बीत जाता है।
राह चलते यूँही आज
चाँद को भी देखा चलते रस्सी पर।
लेकिन मैं सोचूं,
इसे क्या ज़रूरत पड़ गई
ये करतब करने की।
कवियों की कल्पना,
प्रेमिकाओं का चेहरा,
पूर्णिमा से लेकर अमावस तक,
क्या कम करतब *दिखाता* है ?
माँ की लोरी में मामा भी तो बनता है !
कल देखा था चाँद को
रस्सी पर चलते,
इस बात पर हँसी आई के
इसको भी ज़िन्दगी ने
छू लिया होगा।