मैं कवि नहीं
मैं कवि नहीं
मैं कवि नहीं,
बस अल्फ़ाज़ पढ़ता हूँ,
मैं लेखक नहीं,
चेहरों को देखता हूँ।
लिखूँ कितना ही,
पढूँ जितना भी,
सफ़्हा पलटूँ कोई,
खाली हैं कोने, मैं वहीं रहता हूँ।
कभी क़लम माशूका है,
कभी कागज़ रक़ीब होता है,
दोनों से रिश्ता है,
संभाल कर रखता हूँ।
मैं कवि नहीं,
बस अल्फ़ाज़ पढ़ता हूँ।
लिखता हूँ जो मन करता है,
बहता हूँ जहाँ बहाव जाता है,
एक बार तोड़े थे किनारे सारे,
अब भी उसी ओर लौटता हूँ।
सारे जज़्बात अंदर दफ़्न हैं,
कहीं साँसें भर लें तो,
अगन होगी सब ओर।
इस लिए,
जो लिखना है,
उसको रहने देता हूँ।
मैं कवि नहीं,
बस अल्फ़ाज़ पढ़ता हूं।