मैं शब्दों का व्यभिचारी
मैं शब्दों का व्यभिचारी
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सोच अलग, बोल अलग, ख़्याल कुछ और,
और कहती है मासूम ख़ुद को, दुनिया बेचारी।
और मैं शब्दों का व्यभिचारी।
महंगा लिबास, दिखावे की मिठास,
हलके मिज़ाज की कारोबारी।
और मैं शब्दों का व्यभिचारी।
सीधा जो बोले उससे बैर.... क्यूँ न हो,
मियाँ मिट्ठू से जो हो गई है यारी।
और मैं शब्दों का व्यभिचारी।
व्यभिचार सुना, कभी होता था जिस्म का,
अबके तो, ज़बान में भी है इसकी हिस्सेदारी।
और मैं शब्दों का व्यभिचारी।
सोच विचार के लिए पड़ी है उम्र सारी,
सोचा विचार करके बोलूं मैं कहलाऊँ व्यापारी।
ना भैया ना, ठीक ठीक हूँ जैसा भी हूँ,
मैं शब्दों का व्यभिचारी।
मैं शब्दों का व्यभिचारी।