ख़लिश
ख़लिश
मैंने घर के दरवाजे खुद बंद किए थे।
एक मासूम खुशबू थी जब बच्चे साथ थे।
बिखरा हुआ सामान देख
खूब चिल्लाती थी।
मेरी आवाज बच्चों की हँसी में दब जाती थी।
दीवारों पर उनकी नादान चित्रकला देख,
उनके रंग छुपा देती थी।
बागीचे के फूल जमीन पर देख,
गुस्सा हो जाती थी।
पर ऑफिस के बाद वो झूले पर ही दिखते थे।
धीरे धीरे एक के बाद एक,
मेरा दरवाजा बंद कर, निकल गए,
बड़े जो हुए,
एक ख़लिश छोड़ गए।
अब सिर्फ हम दोनों है,
वो आज भी झूले पर,
मैं घर की सीढ़ियों पर,
घर में कोई खुशबू नहीं,
कोई चिल्लाहट नहीं,
दीवारें साफ स्वच्छ है,
अलमारियां सजी हुई
सहमी सी बंद है,
बागीचे में बहार है,
पर निखार नहीं।
राह देख रहे है हम और बागीचे के फूल,
पर कोई आहट नहीं।
सन्नाटे को शोर करने को कहते है।
चिड़ियों को घरौंदा बनाने को कहते है।
सुबह श्याम घर में बिखरती सूर्य किरणों को रुकने को विनती करते है।
अब मेरे दरवाज़े खुले रहते है।
राह तकते हुए।
