खिड़की से उसका झांकना
खिड़की से उसका झांकना
जब भी गुजरता हूँ उस गली से
यही ख़्याल दिल में आता है
आज कुछ हिम्मत जुटाकर
दिल में मची है जो खलबली बता ही दूं
नजरों से नजरें तो रोज़ टकराती हैं
नयनों से नयनों की बातें भी होती है
उसकी चांदनी मुस्कान की झलक से
मेरी बेवफ़ा मुस्कान की बांछें खिल जाती हैं
आज खिड़की खोलकर नहीं देखा उसने
शायद मेरे कदमों की आहट
नहीं सूनी उसके कानों ने
खिड़की से उसका मुझे हर सुबह झांकना
जैसे बसंत ऋतु लौटी हो लंबे सफ़र से
छत में कपड़े सुखाने भी नहीं आई
वक्त आज एक बार फिर दग़ा दे गया
सुना है तारे जब गर्दिश में होते हैं
फिर वही होता है जो नहीं होना चाहिए था
>ये मेरी बदनसीबी नहीं तो और क्या है
ये गुमनाम सफ़र जाने कहाँ ख़त्म होगा
कहीं ऐसा तो नहीं कि
बेमकसद मैं उसकी गली की धूल फांक रहा हूँ
तभी मेरे गालों पर जल की कुछ बूंदें
बिन बुलाए मेहमान की तरह टपक पड़ी
आसमान में देखा तो काले बादल भी न थे
मौसम की नीयत भी जैसे साफ़ थी
इतने में जो नजारा देखा तो देखता रहा
घर की बाल्कनी में खड़ी होकर
रेशमी घुंघराले गीले जुल्फों को झटक रही थी
जुल्फों से फिसलकर प्रेम रस की आंच
मेरे गालों को सुलगा रही थी
थोड़ा-सा शरमाई, थोड़ा-सा मुस्कुराई
उसकी शरारत भरी अदाओं को पढ़कर
समझ आया कि महीनों की कोशिश
आज रफ़्तार पकड़कर पटरी पर लौट रही है