ख़ाक का पुतला
ख़ाक का पुतला
तुझे गुमान आखिर किस बात का है
तू महज़ पुतला एक खाक का है,
रोज़ सुबह उठ तो जाता है तू
मग़र जिंदा नज़र क्यों नहीं आता है?
एक शिकायत है तुझसे ख़ुद को सभ्य कह के
तू कुछ इंसान सा क्यों नहीं बन पाता है?
फ़िर एक परिंदे ने रो रो के बताया है
तू पंखों से उस पिंजरे को सजाता है,
अब जो फ़िर मिले हो तो ज़रा पास तो बैठो
ये शख्स कहां किसी को अपने पास बुलाता है,
ये सिला मिला है हमें प्यार करने का अभिषेक
वो तुझे गैर कहते हैं, तू उन्हें जान कहता है।