खेतों का राग
खेतों का राग
भोर प्रभाती गाते गाते
हल लेकर वो चल पड़ा
सूरज की किरणों से पहले
खेतों को वो निकल पड़ा।
गिरी है जब जब अर्थव्यवस्था
कृषक ने ही उसे संभाला है
कभी याद उसे भी कर लेना
उन से ही हाथों का निवाला है।
बंजर थी जमीं न ही थी नमीं
फिर भी उसने है काम किया
ज्यों हल है उसने थाम लिया
फिर उसने न आराम किया।
अथक परिश्रम कर उसने
स्वयं ही खेतों को जोता है
जीवों के क्षुधा शांति हेतु
वह बीज भूमि में बोता है।
नभ की मेघा फिर बरसाती
अपने सावन की पहली बूँदें
मन मयूर नृत्य है करती
सोंधी महक माटी की सूंघे।
आकाश से भी अंगार बरसते
बूँदों का कोई निशान नहीं
खून पसीने से फिर वो सींचे
चेहरे पर कोई थकान नहीं।
मृदा वसन को ओढ़े ओढ़े
बाहर आने को अकुलाया है
पहली कोंपल ज्यों है फूटी
धूप- हवा ने सहलाया है।
कभी थपेड़े हवा के खाता
कभी धूप से जल जाता
कालचक्र की गति से देखो
बीज है पौधा बन जाता।
पौधे में फिर पुष्प लगेगा
थोड़ा जल फिर धूप लगेगा
भँवरों का फिर होगा गुंजन
मस्त मगन होगा तन मन।
चारों ओर पसरी हरियाली
पुष्प संग लग गए हैं बाली
पूजा को पुनः सजी है थाली
हर ओर है छायी खुशहाली ।
कालचक्र ने फिर गति बदली
अब होगी फसलों की कटनी
अन्न से भर गया है खलिहान
सजल नयन हो गया किसान।
खेतों और किसानों के मध्य
न जाने ये कैसा अनुराग है
ये महज कोई कविता नहीं
यह तो खेतों का राग है।
