STORYMIRROR

Surendra kumar singh

Abstract

4  

Surendra kumar singh

Abstract

खामोशी मचल रही है

खामोशी मचल रही है

1 min
294


शोर की बहती हुई नदी में

बर्फ के टापू सी

चमकती हुयी खामोशी

पिघल रही है,

शोर की तरह बहने को

मचल रही है।

अपने आस पास बहते हुए

अनगिन शब्दों

और उनकी आवाजों में

एक नया शब्द

एक नयी आवाज

प्रवाहित करने की

युगति लगा रही है

डर था और है भी कि

अनसुना रहने का

इसलिए अपने तरह खामोश

शब्द मनुष्य से

परिणय का सफल प्रबंध

करती है

और मुस्कराते हुए उसके

गले लगती है

और उससे गुफ़्तगू कर रही है

हमने भी सुना था

खामोशी को सुनना अद्भुत होता है

और सचमुच कितना अद्भुत है

खामोशी को सुनना

शोर की इस बहती हुई नदी में।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract