चार दिन
चार दिन
हर कोई दुर से ही चलता हैं
हर कोई दुर से ही मिलता हैं
ऐसी भी क्या गुनाह किया हैं
जो हर कोई दुर से ही निकलता हैं
बस उन चार दिनो में संसार
और भगवान दोनों भी बदलता हैं
बंद कमरें ही एक जीव
दिन रात टहलता हैं
वो बेबसी पे दिन रात रोता हैं
ना चैनसे जीता हैं, ना मरता हैं
ना वो अपने दर्द से उभरता हैं
ना दिल की बात किसी से करता हैं
जो सृष्टि का नियम वहीं चलता हैं
अंधविश्वास में दुनिया ढलता हैं
आपका आचार नहीं, विचार ख़राब होता हैं
मेरे चार दिन नहीं, आपका दिमाग ख़राब होता हैं
अंधेरे का सांस भी अखरता हैं
जब शिक्षा उड़ान भरता हैं