STORYMIRROR

चार दिन

चार दिन

1 min
358


हर कोई दुर से ही चलता हैं

हर कोई दुर से ही मिलता हैं


ऐसी भी क्या गुनाह किया हैं

जो हर कोई दुर से ही निकलता हैं


बस उन चार दिनो में संसार 

और भगवान दोनों भी बदलता हैं


बंद कमरें ही एक जीव

दिन रात टहलता हैं


वो बेबसी पे दिन रात रोता हैं

ना चैनसे जीता हैं, ना मरता हैं


ना वो अपने दर्द से उभरता हैं

ना दिल की बात किसी से करता हैं


जो सृष्टि का नियम वहीं चलता हैं

अंधविश्वास में दुनिया ढलता हैं


आपका आचार नहीं, विचार ख़राब होता हैं

मेरे चार दिन नहीं, आपका दिमाग ख़राब होता हैं


अंधेरे का सांस भी अखरता हैं

जब शिक्षा उड़ान भरता हैं


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract